मार्गशीर्ष महालक्ष्मी व्रत कथा - Margashirsha Vrata Katha
*स्थापना पूजा एवं व्रत की विधि*
*1* यह व्रत पूजा करने से माता महालक्ष्मी प्रसन्न होती है, तथा सुख शान्ति एवं धन संपत्ति प्राप्त होती है। यह व्रत करने वाले स्त्री तथा पुरुष दोनों मन से स्वस्थ एवं आनंदमय होने चाहिये।इस व्रत को किसी भी महीने के प्रथम गुरुवार ( बृहस्पतिवार) से शुरु कर सकते है। विधि नियम अनुसार हर गुरुवार को महालक्ष्मी व्रत करे। श्री महालक्ष्मी की व्रतकथा को पढ़ें लगातार आठ गुरुवार को व्रत पालन करने पर अंतिम गुरुवार को समापन करे, वैसे यह व्रत पूजा पूरे वर्षभर भी कर सकते है। पुरे वर्ष भर हर गुरुवार के देवी की प्रतिमा या फ़ोटो के सामने बैठकर व्रत कथा को पढ़ें। *2* शेष गुरुवार के दिन आठ सुहागनों या कुँवारी कन्याओं को आमंत्रित कर उन्हें संमंके साथ पीढा या आसान पर बिठाकर श्री महालक्ष्मी का रूप समझ कर हल्दी कुमकुम लगायें। पूजा की समाप्ति पर फल प्रसाद वितरण करें तथा इस कथा की एक प्रति उन्हें देकर नमस्कार करें। केवल नारी ही नहीं अपितु पुरष भी यह पूजा कर सकते है। वे सुहागन या कुमारिका को आमंत्रित कर उन्हें हाथ में हल्दी कुमकुम प्रदान करें तथा व्रत कथा की एक प्रति देकर उन्हें प्रणाम करे। पुरुषो को भी इस व्रत कथा को पढ़ना चाहिये। जिस दिन व्रत हो, उपवास करे , दूध, फलाहार करें। खाली पेट न रहे, रात को भोजन से पहले देवी को भोग लगायें एवं परिवार के साथ भोजन करें।
*3* पदमपुराण में यह व्रत गृहस्तजनों के लिये बताया गया है। इस पूजा को पति पत्नी मिलकर कर सकते हैं। अगर किसी कारण पूजा में बाधा आये तो औरों से पूजा करवा लेनी चाहिये। पर खुद उपवास अवश्य करें। उस गुरुवार को गिनती में न लें।
*4* अगर किसी दूसरी पूजा का उपवास गुरुवार को आये तो भी यह पूजा की जा सकती है। दिन / रात में भी पूजा की जा सकती है। दिन में उपवास करें तथा रात में पूजा के बाद भोजन करलें। इस व्रत कथा को सुनने के लिये अपने आसपड़ोस के लोगों को, रिश्तेदारो को तथा घर के लोगो को बुलायें व्रत कथा को पढ़ते समय शान्ति तथा एकाग्रता बरतें।
*5* अगहन (मार्गशीष) के पहले गुरुवार को व्रत शुरू करें तथा अंतिम गुरुवार को उसका समापन करे। अगर माह में पाँच गुरुवार आये तो पांचों गुरुवार को ( उस दिन अमावस्या /या पूर्णिमा ) तो भी पूजा करें।
*श्री महालक्ष्मी देवी की स्थापना, विसर्जन तथा पूजा विधि*
*1* इस पूजा को करने के लिए किसी ब्राह्मण, पुरोहित की आवश्यकता नहीं है। हर कोई अपनी भक्ति से पूजा कर सकते हैं। एक दिन पूर्व ही घर को गोबर से लेप ले या फिर गीले कपड़े से पोछ लें। इसके बाद एक ऊँचे पीढे या चौकी पर या छोटे मेज़ पर बीच में थोड़े गेहूँ या चावल रख का एक साफ सुथरे ताँबे या पीतल के लोटे को पानी से भर कर चावल या गेहूँ पर रखें, पानी मे सुपारी, कुछ पैसे और दुब (दूर्वा घास) डाले। ऊपर से लोटे में चारों तरफ पाँच तरह के पेड़ के पाँच या सात पत्ते डाल कर बीचों बीच एक नारियल रखें, उस नारियल पर बाजार में उपलब्ध देवी के मुखोटे या चहरे को बांध या चिपका दें और लोटे पर हल्दी - कुमकुम लगाये और साथ ही उस लोटे के गले मे लोटे के हिसाब से लहँगा बाँध दे और नारियल के ऊपर एक छोटी चुनरी भी चढ़ा देवें साथ ही देवी की प्रतिमा या फ़ोटो को पूर्व दिशा में मुँह करके या उत्तर दिशा में मुँह करके स्थापना करनी चाहिये। इस व्रत कथा की पुस्तक में जो फ़ोटो हैं उसे भी सामने रखें तथा पूजा प्रारंभ करें।
*2* इसके बाद आचमन –. *ॐ केशवाय नमः*, *ॐ नारायणाय नमः*, *ॐ माधवाय नमः* –
इन तीनों मंत्रो को पढ़कर प्रत्येक मंत्र से एक एक आचमन करें फिर *ॐ गोविन्दाय नमः* बोलते हुए हाथ धो ले। फिर देवी को फूलों से जल का छीटा देते हुए स्नान करवायें, और हल्दी-कुमकुम लगायें, पुष्प - हार अर्पित करें धूप - दीप जलायें।फिर इसके बाद भोग लगाकर महालक्ष्मी व्रत के माहात्म्य का पाठ करें। शुरू में महालक्ष्मी नमन अष्टक का पाठ करें फिर देवी को प्रणाम कर कथा का पाठ शुरू करें कथा की समाप्ति पर देवी की आरती उतारें तथा फिर से प्रणाम करें।
*3* रात को फिर देवी की पूजा करें मिष्ठान का भोग लगाएं तथा गो माता के लिए भी अन्न रखें और दूसरे दिन सुबह गो माता को उनका हिस्सा अर्पित करें। इसके बाद परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर भोजन करें।
*4* दूसरे दिन सुबह स्नान कर के पेड़ के पत्तों को निकले और घर मे अलग अलग जगह रखें पानी को समुद्र, नदी, तालाब, कुँए या तुलसी की क्यारी में डाल दें। जिस जगह पूजा की हो वहाँ हल्दी कुमकुम छिड़क कर तीन बार प्रणाम करें। इसी प्रकार महीने के हर गुरुवार को करें मार्गशीर्ष (अगहन) मास के चार गुरुवार हो तो चारों और पाँच हो तो पांचो को इसी प्रकार पूजन करें। पद्मपुराण में कहा गया कि जो कोई भक्त हर वर्ष श्री महालक्ष्मी जी का यह व्रत करेगा उसे सुख सम्पदा और धन लकभ होगा।
*5* कुछ लोग इसे केसरी व्रत भी कहते हैं परन्तु इस व्रत में किसे खास रंग के परिधान की कोई जरूरत नही है। इसके इलावा महालक्ष्मी मंत्र, चालीस, आरती इत्यादि का भी पाठ करना चाहिये।
*पूजन सामग्री*
एक नारियल पानी वाला,
एक सुपारी
एक हल्दी की गाँठ,
एक रुपया या कोई सोने या चाँदी का सिक्का कलश में डालने के लिये,
एक पाटा,चौकी या छोटा टेबल
एक स्वच्छ धुला हुआ वस्त्र पाटा या चौकी पर बिछाने के लिये
एक कलश जिस पर नारियल की स्थापना हो सके।
पाँच प्रकार के फल
पाँच पेड़ों के पत्ते, *(बरगद,पीपल,आम,अशोक, पाकड़,)* या जो भी बड़े पत्ते मिल जाये
*॥अथ श्रीमहालक्ष्म्यष्टकम॥*
नमस्तेऽस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते । शङ्खचक्रगदाहस्ते महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥१॥
नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयंकरि । सर्वपापहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥२॥
सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयंकरि । सर्वदुःखहरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥३॥
सिद्धिबुद्धिप्रदे भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि । मन्त्रमूर्ते सदा देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥४॥
आद्यन्तरहिते आद्यशक्तिमहेश्वरि । योगजे योगसम्भूते महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥५॥
स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्तिमहोदरे । महापापहरे महाशक्तिमहोदरे देवि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥६॥
पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्मस्वरूपिणि । परमेशि जगन्मातर्महालक्ष्मि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥७॥
श्वेताम्बरधरे देवि नानालङ्कारभूषिते । जगत्स्थिते जगन्मातर्महालक्ष्मि महालक्ष्मि नमोऽस्तुते ॥८॥
महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं यः पठेद्भक्तिमान्नरः । सर्वसिद्धिमवाप्नोति राज्यं प्राप्नोति सर्वदा ॥९॥
एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनम् । द्विकालं यः पठेन्नित्यं धनधान्यसमन्वितः ॥१०॥
त्रिकालं यः पठेन्नित्यं महाशत्रुविनाशनम् । महालक्ष्मिर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा ॥११॥
*॥इति श्रीमहालक्ष्मी स्त्रोत्र समाप्त।।*
*श्री माहलक्ष्मी माहात्म्य की व्रत कथा* *(गुरुवार की कथा)*
आइये भक्तजनों, धयान से सुने श्री महालक्ष्मी की व्रत कथा, गुरुवार की व्रतकथा, इसे श्रावण और पठन करने से दुःख दारिद्र्य दूर हो जाता है, श्री महालक्ष्मी माता की कृपा से सुख, संपत्ति,ऐश्वर्य प्राप्त होता है, मन की इच्छा पुरी होती है।
श्री महालक्ष्मी माता के अनेक रूप तथा नाम हैं। भूतल में वे छाया, शक्ति, तृष्णा, शांति, जाती, लज्जा, श्राद्धा, कान्ति, वृत्ति, स्मृति, दया, तुष्टि, माता, अधिष्ठात्री, एवं लक्ष्मी के रूप में स्थित है। उन्हें प्रणाम करते है। कैलाश पर्वत पर पार्वती, क्षीरसागर में सिन्धुकन्या, स्वर्गलोक में महालक्ष्मी, भूलोक में लक्ष्मी, ब्रह्मलोक में सावित्री, ग्वालों में राधिका, वृन्दावन में रासेश्वरी, चंदनवन में चन्द्रा, चम्पकवैन में गिरजा, पद्मवन में पद्मा, मल्टीवं में मालती, कुन्दनवन में कुंददंती, केतकी वन में सुशीला, कदंबवन में कदंबमाला, राजप्रसाद में राजलक्ष्मी और घर घर में गृहलक्ष्मी इन विभन्न नामों से पहचानी जाती है।
इस तरह सर्वथा, चारो और सर्वभूत में सुपरिचित माता श्री महालक्ष्मी की यह कथा है। अब हम इसका श्रावण-पठन करेगें। भारतवर्ष के सौराष्ट्र देश में द्वापर युग की यह कहानी हुई है।सौराष्ट्र में उस समय भद्रश्रवा नाम के राजा थे। वे बड़े पराक्रमी राजा थे। चार वेद, छः शास्त्र, अठारह पुराणों का उन्हें ज्ञान था। उनकी रानी का नाम सुरतचंद्रिका था। रानी दिखने में सुन्दर और सुलक्षणा थी तथा पतिव्रता थी। उन दोंनो को सात पुत्र तथा उसके बाद एक कन्या का वरदान मिला था। कन्या का नाम शयाम बाला था। एक बार महालक्ष्मी जी के मन में आया की जाकर उस राजा के राजप्रसाद में रहे। इससे राजा को दुगनी धन - दौलत की प्राप्ति होगी और वह इस धन दौलत से अपनी प्रजा को और सुख दे पायेगा। गरीब के घर अगर रहे और उसे धन-दौलत प्राप्त हो तो वह स्वार्थी की तरह केवल अपने ऊपर ही खर्च करेगा। यह सोचकर श्री महालक्ष्मी जी ने बुढ़ी ब्राह्मण स्त्री का रूप धारण किया, हाथ में लाठी लिये लाठी के सहारे रानी के द्वार तक पहुँची। यद्यपि उन्होंने बुढ़ी औरत का रूप धारण किया था पर उनके चहरे पर देवी का तेज था। उन्हें देखते ही एक दासी सामने आई, उसने इनका नाम, धाम, काम, धर्म पूछ डाला।
वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारित माता लक्ष्मी ने कहा, "बालिके मेरा नाम कमला है मेरे पति का नाम भुवनेश है। हम द्वारिका में रहते है तुम्हारी रानी पिछले जन्म में एक वैश्य की पत्नी थी। वह वैश्य गरीब था। दारिद्र्य के कारण हर रोज घर में झगड़े होते थे तथा उसका पति रोज उसे मारता था। इन बातों से तंग आ कर वह घर छोड़कर चली गयी तथा बन जंगल में खाली पेट भटकने लगी। उसकी इस दुर्दशा पर मुझे दया आई।तब मैने उसे सुख सम्पति देने वाली श्री महालक्ष्मी की कथा सुनाई। मेरे कहने पर उसने श्री महालक्ष्मी का व्रत किया। श्री महालक्ष्मी प्रसन्न हुई उसकी गरीबी दूर हुई। उसका घर- संसार दौलत,संतति , संपत्ति से भर गया। बाद में पति पत्नी दोनों परलोक सिधारे। लक्ष्मी व्रत करने के कारण वे लक्ष्मी लोक में रहे। उन्होंने जितने साल महालक्ष्मी का व्रत किया उतने हजारों साल उन्हें सुखभोग मिला । इस जन्म में उसका जन्म राजघराने में हुआ है, परंतु वह श्री महालक्ष्मी का व्रत करना भूल गई है। उसे यह याद दिलाने में यहाँ आई हूँ। " बुढ़िया की बाटे सुनकर दासी ने उन्हें प्रणाम किया , तथा श्री महालक्ष्मी का व्रत किस तरह किया जाये इस बारे में पुछा बुढ़िया रूप धारण किये हुऐ श्री महालक्ष्मी माता ने दासी को पूजा की विधि तथा महिमा बताई। इसके बाद वह दासी माता को प्रणाम कर रानी को बताने अंदर चली गई । राजवैभव में रहते हुऐ रानी को अपने ऐश्वर्य का बहुत घमंड हुआ था। संपत्ति तथा अधिकार की वजह से वह उन्मत्त हो गई थी। दासी द्वारा बताई गई बुढ़िया की बातें सुनकर वह आग बबूला हो कर राजद्वार पर आ कर बुढ़िया रुपी श्री महालक्ष्मी पर बरस पड़ी। उसे यह मालूम नहीं था की श्री महालक्ष्मी माता बुढ़िया का रूप धारण किये द्वार तक आईं है। परंतु रानी का इस कदर रूख बर्ताव तथा अपना अनादर देखकर माता ने वहाँ ठहरना ठीक न समझा। वे वहाँ से चल पडी। राह में उन्हें राजकुमारी शयामबाला मिली उन्होंने शयमबाला को सारी बात बताई शयमबाला ने अपनी और से श्री महालक्ष्मी माता से क्षमा माँगी। माता को उस पर दया आई। उन्होंने शयमबाला को श्री माहलक्ष्मी व्रत के बारे में बताया। उस दिन अगहन (मार्गशीर्ष) माह का पहला गुरुवार था। शयामबाला ने परम श्रद्धा से श्री महालक्ष्मी का व्रत रखा। फल स्वरूप राजा सिद्धेश्वर के सुपुत्र मालाधर से उसका विवाह हुआ। वह धन-दौलत, ऐश्वर्य , वैभव से मालामाल हो गई। पति के साथ ससुराल में आनंद से दिन बिताने लगी। इधर श्री महालक्ष्मी का रानी पर प्रकोप हुआ। फलस्वरूप राजा भद्रश्रवा का राज्य एवं राजकरोबर नष्ट हो गया। यहाँ तक की खाने के लाले पड़ गये। ऐसी हालात में एक दिन रानी ने राजा से निवेदन किया " हमारा दामाद इतना बड़ा राजा है, धनवान है, ऐश्वर्यशाली है, क्यों न उसके पास जाये, अपना हाल उसे बताये, वह जरूर हमारी मदद करेगा।" इस बात पर राजा भद्रश्रवा दामाद के पास रवाना हुऐ। राज्य में पहुँचकर एक तालाब के किनारे थोड़ी देर विश्राम लेने के लिऐ ठहरे। तालाब से पानी लेने आते जाते दसियों ने उन्हें देखा। उन्होंने विनम्रता से उनकी पूछताछ की जब उन्हें यह मालूम हुआ की वे रानी श्यामबाला के पिता है तो दौड़ते हुऐ जा कर उन्होंने रानी को सारी बात बताई। रानी ने दासी के हाथ राजपरिधान भेजकर बड़े ठाठ से उनका स्वागत तथा आदरसत्कार किया।खान पान करवाया। जब वे लौटने लगे तो सोने की मोहरों से भरा घड़ा दिया। राजा भद्रश्रवा जब वापस लौटे तो उन्हें देखकर रानी सुरतचंद्रिका खुश हुई। उन्होंने सोने की मोहरों से भरे घड़े का मुँह खोल, पर हाय भगवान ! घड़े में धन के बदले कोयले मिले यह सब श्री महालक्ष्मी के प्रकोप से हुआ इस प्रकार दुर्दशा में और कई दिन बीत गये। इस बार रानी स्वयं अपनी कन्या के पास गई। वह दिन अगहन माह का अन्तिम गुरुवार था। श्यामबाल ने श्री महालक्ष्मी का व्रत किया, पूजा की , अपनी माता से भी व्रत करवाया। इसके बाद रानी अपने घर आई। श्री महालक्ष्मी का व्रत रखने पर उसे फिर से अपना राजपाठ, धन-दौलत, ऐश्वर्य प्राप्त हुआ। वह फिर से सुख, शान्ति, आनंदमय जीवन बिताने लगी। कुछ दिनों बाद राजकन्या श्यामबाला अपने पिता के घर आई , उसे अपने घर देखकर सुरतचंद्रिका को पुरानी बातें याद आई। यहीं की श्यामबाला ने अपने पिता को घड़ा भर कोयला दिया था और उसे तो कुछ भी नहीं दिया था। इसी कारण शयामबाला को पिता के घर आने पर उसका कोई आदर आतिथ्य नहीं हुआ। बल्कि अनादर हुआ। पर उसने इस बात का बुरा नहीं माना। अपने घर लौटते समय उसने पिता के घर से थोडा नमक ले लिया।आपने घर लौटने पर उसके पति ने पूछ, "अपने मायके से क्या लाई हो?" इस पर उसने जवाब दिया, " वहाँ का सार लाई हूँ।" पति ने पुछा "इसका मतलब क्या हुआ ? " श्यमबाला ने कहा "थोडा धीरज रखे, सब मालूम हो जायेगा।" उस दिन श्यामबाला ने सारा भोजन नमक डाले बिना बनाया और परोसा। पति ने खाना चखा। सारा खाना नमक बिना था इसलिये स्वाद न आया । फिर श्यामबाला ने थाली में नमक डाला इससे सारा भोजन स्वादिष्ट लगने लगा। तब श्यामबाला ने पति से कहा , "यही है वह मायके से लाया हुआ सार।" पति को उसकी बात सही लगी। फिर वह दोंनो हँसी मजाक करते हुऐ भोजन करने लगे।
कहा गया है की इस तरह जो कोई श्राद्धा भाव से श्री महालक्ष्मी की पूजा करे उसे माता की कृपा प्राप्त होती है। सुख, संपत्ति ,शांति प्राप्त होती है सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। परंतु यह सब प्राप्त होने पर माता की पूजा को भूलना नहीं चाहिये। हर गुरुवार को व्रत पाठ अवश्य करना चाहिये इस तरह श्री महालक्ष्मी की महिमा भक्तो की मनोकामना पूरी करती है।
*।। इस प्रकार श्री महालक्ष्मी की गुरुवार की कथा सम्पूर्ण होती है।।*