आज है मदन द्वादशी जाने क्या है ये पर्व और इसकी व्रत कथा
क्या है मदन द्वादशी पर्व
हिंदू माह के अनुसार चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को मदन द्वादशी कहते हैं। इस व्रत में काम के पूजन की प्रधानता होती है, मदन कामदेव का ही पर्यायवाची है इसीलिए इसे मदन द्वादशी कहा जाता है। इस व्रत का प्रारंभ भले ही चैत्र मास होता है परंतु इसके बाद साल की प्रत्येक द्वादशी को व्रत करने से पापों का नाश होता है और पुत्र की प्राप्ति होती है। बताते हैं प्राचीन काल में दैत्य माता दिति ने भी अपने पुत्रों की मृत्यु के पश्चात् मदन द्वादशी का व्रत कर पुनः पुत्र रत्न की प्राप्ति की थी।
13 महीने की उपासना
चैत्र शुक्ल द्वादशी से से पूरे 13 महीने के लिए मदन द्वादशी व्रत धारण किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने वाली माता को पुत्र शोक नहीं होता है। इस दिन मदन पूजा रामय-कामाय मंत्र के जाप के साथ की जाती है। इस व्रत में रात्रि जागरण का भी अत्यंत महात्म्य माना जाता है। 13 द्वादशी के बाद इसी दिन इस व्रत के अनुष्ठान से भक्त के सारे मनोरथ सफल हो जाते हैं।
क्या व्रत से जुड़ी कथा
कहते हैं कि एक बार देवताओं ने संपूर्ण दैत्यकुल का संहार कर दिया। जिसके पश्चात दैत्य माता दिति को अपार कष्ट हुआ। अपने कष्ट से मुक्ति पाने के लिए वे पृथ्वी लोक में स्यमन्तपंचक क्षेत्र में आकर सरस्वती नदी के तट पर अपने पति महर्षि कश्यप का आह्वान करते हुए भीषण तप करने लगीं। उन्होंने अपनी वृद्धावस्था को भूल कर पुत्रों के शोक से मुक्ति पाने के लिए सौ वर्षों तक कठोर तप किया, फिर भी उनकी इच्छा पूर्ण नहीं हुई। दिति ने वशिष्ठ आदि ऋषियों से अपनी कामना पूर्ण करने का मार्ग पूछा और उन्होंने दिति को मदन द्वादशी व्रत के विधान बता कर उसे करने के लिए कहा। दिति ने वैसा ही किया और उनके पति महर्षि कश्यप उसके सम्मुख उपस्थित हो गए। दिति की इच्छा जान कर उन्होंने उनको पुनः रुप यौवन संपन्न युवती बना दिया और वर मागने को कहा, तब दिति बोलीं की वे एक ऐसा पुत्र चाहती हैं जो इंद्र सहित समस्त देवताओं का विनाशक हो। यह सुनकर महर्षि कश्यप ने उन्हें ऐसा पुत्र पाने के लिए एक और अनुष्ठान करने के लिए कहा और फिर उन्हें गर्भाधान का अवसर देकर सौ वर्ष गर्भवती रह कर पुत्र जन्म का आर्शिवाद दिया। 100 वर्ष पूर्ण होने से पहले अपनी सुरक्षा से भयभीत इंद्र ने उनके गर्भ को समाप्त करने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने गर्भस्थ शिशु पर वज्र से प्रहार किये। इस प्रयास में अमरत्व प्राप्त वो शिशु उनचास शिशुओं में बदल गया और उन्हें मरुद्गण कहा गया। बाद में इंद्र ने अपने कृत्य के लिए दिति से क्षमा मांगी और उन उनचास शिशुओं को देवताओं के समान बताते हुए यज्ञों में उनके लिए उचित भाग की व्यवस्था की।